एक बार फिर, हाँ, फिर से एक बार, नफरत हो गई है अपनी कल्पनाओं से, उन्मुक्त उड़ने, स्वच्छन्द सोचने वाले हृदय को सीना फाड़ कर

एक बार फिर, हाँ, फिर से एक बार, नफरत हो गई है अपनी कल्पनाओं से, उन्मुक्त उड़ने, स्वच्छन्द सोचने वाले हृदय को सीना फाड़ कर
मैं चुप हूँ, वे सब बोल रहे हैं; क्या बोल रहे हैं? हह! अब बोल रहे हैं तो बस – बोल रहे हैं। पुरुषार्थ को
जो कुछ लिखा तूने, उसे मिट के मिटा जो पास है तेरे, उसे खुद से बचा जो बोया है तूने, उसे जड़ से हटा जो
आप को: जन्मदिन मुबारक और धन्यवाद बताने का कि कविता रजनीगंधा का फूल हो सकती है पर अभी ‘आप की फरमाइश’ पर कविता लिखूँ कहाँ
जब गीत न अर्पित कर पाओ पाते स्वयं को विचित्र युद्ध में रक्षा करते शत्रु जनों की टूटते न नींद न संग्राम मोहलत नहीं चार
जो प्रत्येक शब्द की
आँख में काजल
करके ही सो पाएँ
सिर्फ़ वो प्रियवर
रसमना सहचर
मेरे साथ आएँ।