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प्रश्न: आचार्य जी, केसरी फ़िल्म के बारे में कुछ कहें। क्या ये फ़िल्म और बेहतर हो सकती थी? कैसे?
आचार्य प्रशांत जी: वीरता भी यकायक नहीं आती। वीरता भी अभ्यास माँगती है।
आपने अभी केसरी फ़िल्म की बात की।
इक्कीस नौजवान सिपाही यूँही नहीं भीड़ गए होंगे दस हज़ार अफ़गानों से। कुछ न कुछ उनमें विशिष्ट था, कुछ उन्होंने साधा था। कुछ उनका अभ्यास था, कुछ उनकी तैयारी थी। फ़िल्मकार को वो तैयारी दिखानी चाहिए थी। नहीं तो आम जनता को सन्देश ये गया है कि – तुम कितने भी साधारण इंसान हो, तुम कितने भी औसत इंसान हो, तुम यूँही एक दिन अचानक योद्धा बन जाओगे। ऐसा होता नहीं है।
वो इक्कीस लोग बहुत ख़ास रहे होंगे ।
और इक्कीस के इक्कीस नहीं भी, तो उसमें से कम-से-कम आठ-दस तो उसमें से बहुत विशिष्ट रहे होंगे। या तो उनका निशाना बहुत अचूक रहा होगा, या उनकी धर्मनिष्ठा बहुत गहरी रही होगी, या उनका बचपन किसी ख़ास तरीक़े से बीता होगा।
उन इक्कीस लोगों में से कुछ लोग ऐसे ज़रूर रहे होंगे जिन्होंने बड़ी साधना की थी, बड़ा अभ्यास किया था।
वो साधना, वो अभ्यास दिखाया जाना चाहिए था।
या तो यही दिखा देते कि इक्कीस सिख हैं जो लगातार गुरु ग्रन्थ साहिब का पाठ कर रहे हैं। और इतनी धर्मनिष्ठा है उनमें कि गुरुओं की कृपा से फ़िर वो एक हज़ारों की फ़ौज से भिड़ गए। या दिखाया जाना चाहिए था कि कैसे वो निशाने-बाज़ी का अभ्यास कर रहे हैं, या वो शारीरिक व्यायाम कर रहे हैं।
कुछ तो ऐसी बात होगी न उनमें, क्योंकि आम आदमी, एक औसत आदमी को तो कायरता की और औसत जीवन की आदत लगी होती है।
उसके सामने वीरता का क्षण आता भी है, तो वो उस क्षण में चूक जाता है ।
ये इक्कीस ख़ास थे, ये जाँबाज़ थे।
ये चूके नहीं ।
पर फ़िल्मकार ने दिखा दिया कि ये साधारण सिपाही थे, ये मुर्ग़ों की लड़ाई कराते थे, और हँसी-ठिठोली करते थे । और कोई अपनी महबूबा के गीत गा रहा है, कोई सुहागरात के सपने ले रहा है। और फ़िर यूँही जब मौक़ा आया तो इनका पूर्ण रूपांतरण हो गया, और ये भिड़ गए। ऐसा नहीं हो सकता। फ़िल्मकार चूक गया है, पूरी बात दिखानी चाहिए थी।
और मैं समझता हूँ उनकी इस वीरता में धर्म का बड़ा योगदान रहा होगा। मैं समझता हूँ वो बड़े धर्मनिष्ठ खालसा रहे होंगे। गुरुओं के सच्चे शिष्य रहे होंगे, इसीलिए वो भिड़ पाए।
फ़िल्म में वो बात ख़ासतौर पर दिखाई जानी चाहिए थी, ताकि नौजवानों को ये सन्देश जाता कि अगर तुम भी धर्मनिष्ठ हो, तुम भी अगर गुरुओं के सच्चे शिष्य हो, तभी तुम वैसी वीरता दिखा पाओगे। अन्यथा नहीं ।
अभी आम नौजवान को क्या सन्देश गया है? कि तुम भी यूँही वर्दी छोड़कर घूमोगे, मुर्ग़े की लड़ाई देखोगे, फ़िर मुर्गा पकाकर खा जाओगे। फ़िर महबूबा के सपने लेते रहोगे। ऐसा ही तुम्हारा भी औसत जीवन होगा, तब भी तुम यकायक सूरमा बन जाओगे।
यकायक कोई सूरमा नहीं बनता।
सूरमाई बड़ी साधना और बड़े अभ्यास से आती है।
ये आपमें से जिनको ये ग़लतफ़हमी हो, कृपया इसको त्याग दें कि – ‘जब मौका आएगा दिखा देंगे।’ मौके बहुत आते हैं कुछ नहीं दिखा पाते आप अगर आपने अभ्यास नहीं किया है।
सूरमाई का अभ्यास करना पड़ता है।
यही आध्यात्मिक साधना है।
जब छोटे-छोटे मौकों पर तुम कायरता दिखाते हो, तो बड़े मौकों पर वीरता कैसी दिखा दोगे? और वीरता का सूत्र तो एक ही होता है – ‘उसको’ समर्पण।
वीरता मूलतः आध्यात्मिक ही होती है।
वीरता कोई अहंकार की बात नहीं होती कि – लड़ जाएँगे, भिड़ जाएँगे, मर जाएँगे।
न।
अहंकार पर आधारित जो वीरता होती है वो बड़ी उथली होती है, थोड़ी दूर चलती है फ़िर गिर जाती है।
ऐसी वीरता जो शहादत को चुनने ले, वो तो आध्यात्मिक ही होगी।
ये बात आप सब भी समझ लीजिए, और ये बात उस फ़िल्मकार को भी समझनी चाहिए थी ।
जपुजी साहिब के, नितनेम साहिब के, ग्रन्थ साहिब के पाठ के दृश्य फ़िल्म में होने चाहिए थे।
वीरता साधना और अभ्यास माँगती है।
छोटी-छोटी बातों में पीठ मत दिखा दिया करो ।
शब्द-योग सत्र से उद्धरित। स्पष्टता हेतु सम्पादित।
विडियो सत्र देखें: केसरी फ़िल्म, कैसे और बेहतर हो सकती थी? (On Kesari movie) || आचार्य प्रशांत (2019)
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