१.
संसार का मतलब ही है कि वहाँ तुम्हें कोटियाँ मिलेंगी, वर्ग मिलेंगे, और विभाजन मिलेंगे।
परमात्मा के दरबार में न श्रेणियाँ हैं, न वर्ग हैं, न विभाजन हैं।
वहाँ ‘दो’ ही नहीं हैं, तो बहुत सारे कैसे होंगे?
दुनिया में बहुत सारी चीज़ें हैं।
दुनिया में तुम कहोगे कि फलाने दफ़्तर में एक नीचे का कर्मचारी है, फ़िर उससे ऊपर का, फ़िर उससे ऊपर का, फ़िर उससे ऊपर का।
‘वहाँ’ ऊपर दो नहीं होते, ‘वहाँ’ एक है।
२.
गुरु क्या कह रहा है, ये भले ही न समझ आ रहा हो, पर इतना भी मान लेना बहुत होता है कि गुरु की सत्ता होती तो है।
समझना इस बात को।
इतना भी आसान नहीं होता है।
ये तो बहुत ही दूर की बात है कि गुरु के कहे को गह लिया, समझ लिया, या गुरु के समक्ष नतमस्तक हो गये।
ये तो बहुत–बहुत आगे की बात है।
मन के लिये इतना भी आसान नहीं होता, कि वो मान ले कि मन के आगे, मन से बड़ा, मन के अतीत, मन के परे भी कुछ होता है।
३.
सपने स्वयं का ज्ञान कराने में सहयोगी होते हैं।
हमारी ही चेतना में क्या छुपा हुआ है, हमारे ही अंतस में गहरा क्या बैठा हुआ है, ये बात सपने में सामने आ जाती है।
जागृत अवस्था में हो सकता है, वो बात पीछे रहे, या दमित रहे। सपने में उभर आती है।
सपने में तुम्हें अपना ही हाल पता चल जाता है।
४.
जो असंभव होगा, उसकी कोई आत्मिक चाह आपको उठ नहीं सकती।
इस सूत्र को अच्छे से पकड़ लीजिये।
मुक्ति संभव है, इसका प्रमाण ही यही है कि आपके अंदर बंधनों को लेकर वेदना उठती है।
मुक्ति असंभव होती तो वेदना न उठती।
५.
बंधन कितने भी आवश्यक लगें, श्रद्धा रखियेगा कि अनावश्यक हैं। बंधन कितने भी आवश्यक लगें, उनके पक्ष में कितने भी बौद्धिक तर्क उठें, या भावनाएँ उठें, सदा याद रखियेगा कि वो आवश्यक लगते हैं, हैं अनावश्यक।
और जो अनावश्यक है, उसे मिटना होगा।
और मुक्ति और सत्य कितने भी असंभव लगें, या जीवन के किसी रूमानी पड़ाव पर अनावश्यक लगें, तो भी याद रखियेगा कि वो संभव ही नहीं हैं, वो नितांत आवश्यक हैं।
वो संभव ही नहीं हैं, वो आपको जीने नहीं देंगे अगर आप ने उन्हें पाया नहीं।
६.
परम तत्व की प्राप्ति, जीवन में कोई अतिरिक्त चीज़ नहीं है।
विलास की बात नहीं है, आइसिंग ऑन द केक नहीं है, सोने पर सुहागा नहीं है।
वो जीवन का प्राण है।
वो साँस है।
७.
सत्य में जीना, मुक्ति को पाना, जेब में पड़े नोट जैसा नहीं है, कि है तो भी ठीक, और नहीं है तो भी काम तो चल ही रहा है।
वो है साँस जैसा, कि, नहीं है तो जी नहीं पाओगे।
वो है ह्रदय की धड़कन जैसा, कि नहीं है तो जी नहीं पाओगे।
और जीओगे भी तो मृतप्राय जीओगे।
८
जो निर्णय ले ही न पा रहा हो, उसे कोई दुःख नहीं होगा। वो तो धैर्य से प्रतीक्षा करेगा।
वो कहेगा, “अभी निर्णय स्पष्ट नहीं हो रहा है”।
दुःख तो उसके हिस्से में आता है, जो जानता है कि सही निर्णय क्या है, जो जानता है कि सही चुनाव क्या है, पर वो सही चुनाव करके भी, सही चुनाव को कार्यान्वित नहीं कर पाता क्योंकि उसमें साहस नहीं है।
९.
श्रद्धा का मतलब होता है कि – अगर बात सही है, तो उसपर चलने से, उसपर जीने से, जो भी नुक़सान होगा, उसे झेल लेंगे।
सही काम का ग़लत अंजाम हो ही नहीं सकता।
सच्चाई पर चलकर के किसी का अशुभ हो ही नहीं सकता, भले ही ऐसा लगता हो।
भले ही खूब डर उठता हो।
श्रद्धा का मतलब होता है – भले ही डर उठ भी रहा हो, काम तो सही ही करेंगे।
१०.
श्रद्धा को जितना परखेंगे, वो उतनी मज़बूत होती जायेगी। माया को जितना परखेंगे, वो उतनी कमज़ोर होती जायेगी। तो परखा करिये, बार-बार प्रयोग, परीक्षण करिये।
११.
ये कुश्ती हो जाने दिया करो।
जितनी बार इसको होने दोगे, उतनी बार पाओगे कि श्रद्धा जीती, माया हारी।
अब तुम्हारे लिये मन बना लेना आसान होगा। अ
ब तुम कहोगे, “इसका मतलब भारी तो श्रद्धा ही पड़ती है”। पर उसके लिये तुमको बार-बार बाज़ी लगानी होगी, खेल खेलना होगा।
खेल खेलोगे ही नहीं, निर्णय कर लोगे, यूँ ही कुछ मन बना लोगे, तो निर्णय ग़लत होगा तुम्हारा।
इसीलिये तो साधना में समय लगता है न, क्योंकि इन सब प्रयोगों में समय लगता है।
मन आसानी से निष्कर्ष पर आता नहीं।
उसको बार-बार सुबूत चाहिये।
वो सुबूत देना होगा।
१२.
श्रद्धा का अर्थ ये नहीं होता है कि तुम्हारे साथ अब कुछ बुरा घटित नहीं होगा।
श्रद्धा का अर्थ होता है – बुरे–से–बुरे घट भी गया, तो भी झेल जायेंगे, तो भी मौज में हैं।
कैसे झेल जायेंगे हमें नहीं पता, पर काम हो जायेगा।
अच्छा हुआ तो भी अच्छा, और बुरा हुआ तो भी कोई बात नहीं।
~उद्धरण – मई’१९ में प्रकाशित लेखों से